मैं देखूँ अंत तक , उस पार है मेरा घर
बादलों सा करूँ तय सफ़र, थोड़ा उड़ते हुए, थोड़ा तैर कर ।
है ठहराव सा इस लम्हे में ,साँसें टकराए है हवाओं से
मैं परिंदा सा , बहका हुआ ,तकता फिरूँ, अपना घर ।
आवाज़ मेरी, मेरे मन में चिल्लाए है, गाए है
धुन बिरहा की , सुने कोई अगर, मेरा घर मुझे बुलाए है
थोड़ा रुक लिया, थोड़ा बढ़ लिया , अब थम चुका हूँ मैं
साबुत है अभी , शीशा उम्मीद का, अब ठन चुका हूँ मैं
मैं आँखे खोल कर देखूँ सपने अपने घर के आँगन के
मैं सोच में फँसा, मैं ख़ुद ना जानू इरादे मेरे मन के
इस पार मेरा हर किसी से कैसा वास्ता है
मैं देखूँ उस पार जहाँ मेरे घर घर का रास्ता है
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